Thursday, July 29, 2010

प्रतिबिंब


एक चाह, एक कसक, एक उल्लास और एक अनकहा दर्द था उनमे, एक तड़प थी खुद को व्यक्त करने की और दुख था खुद की आवाज़ लो गों तक ना पहुचा पाने का. मैने खुद को भी कई बार ऐसा पाया है, शायद इसलिए उस अनसुने एहसास को मैं पूरी तरह महसूस कर पा रहा था. और खुद के उस विशाल प्रतिबिंब को देखकर खुश भी था मैं. एक पल तो ऐसा लगा मानो उन हज़ारो में में एक मैं ही था जो एक अधभूत खुशी को पा रहा था जिसका कारण बाद आत्मिक साधरीकरण था. हर बार जब उसका और मेरा मिलन होता तो एक अनोखे एहसास के तले हम खुद के दुखों को या कह लीजिए हम में उठती संवेदनाओं को बाँट लेते थे. ऐसा अधभूत मिलन था वो. शांति देह एक पल के लिए भी ऐसा ना लगा की मैंन अपनो से दूर हूँ, उस हर उठती लहर में मैने खुद को खुद के पास पाया, बहुत पास.

उस विशालकाय समुद्र से खुद की तुलना बेवकूफी लगी थी मुझे, पर इस मनुष्य जीवन में शांति, सुख और सुकून पाने का वो प्रयास कहीं भी ग़लत ना था. मेरे म्न में हर पल ख़याल अठखेलिया खा रहे थे तो वहाँ ऊँची उठती लहरें उस समुद्र की बैचेनी बया कर रही थी. मेरा हर ख़याल कुछ समय बाद एक तर्क पर आकर ख़त्म हो रहा था और मेरे सामने उस समुद्र की ताकतवर लहरें मेरे कदमों में आकर रुक सी जा रही थी.

न जाने क्यूँ उस दिन उस एहसास तले मुझे सारे सवालों के जवाब मिल गये. मेरे म्न की हर उलझन समुद्र की हर एक उठती लहर के साथ सुलझ गयी.
à अपना स्वार्थ साध चुका था, अपना मतलब निकाल चुका था, औरवहाँ से चला गया.

पर मैं अपने पीछे छोड़ गया था उस अशांत, परेशन, उत्तेजित व असहाय विहंगम समुद्र को जिसमें थी एक च ाह, एक कसक, एक उल्लास और एक अनकहा दर्द.
- अभिराज

1 comments:

MALAY.. said...

Very nice...Abhiraj sir u rock...

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