Wednesday, July 28, 2010

आखरी पुकार




वो अकेला ही चला आया था,
बड़े से इस नगर में,
भीड़ भरे इस शहर में.
छोड़ अपने गाव को,
सौंधी सी माटी को.
छोड़ पीपल की छाव को,
चुहले की उस रोटी को.
लेकर अरमानों की पोटली,
लपेटे सपनों की चादर.
गया वो अनसुनी कर,
बूड़े पिता की आखरी पुकार.

सोचा था कुछ काम करेगा,
बच्चों को पढ़ाएगा.
एक छोटा संसार है उसका,
जिसे वह सजाएगा.
गाव में बहुत सुना, शहर के बारे में
बड़े दिलवाले, बड़े लोगों के बारे में.
यहाँ चकाचौंध है, चमक है,
बड़े घरवाले, बड़े साहब है.

काम
की तलाश में भटकते
बीत गये जाने कितने दिन
काम मिला नही मिली फटकार
मा का दुलार छोड़ आए था
यहाँ मिली दुतकार

धूप में जलते-जलते
बीत गये जाने कितने दिन
सिर पर छत ना मिली कहीं
छाव नसीब में ना थी कहीं...
शाहर अब भी रोशन है,
जगमगा रहा है.
कामयाबी और पैसे के पीछे,

सारा शाहर भाग रहा है.


अंधेरा था उसके सामने
अकेला बैठा था वह, गली के एक कोने में.
पेट में एक दाना था नहीं,
दो बूँद पानी को तरसता रहा
था हर कहीं.
सूनेपन से घिरा, तलाश रहा था
अपने बिखरे समान में...
वो सपने, वो खुशियाँ, मा का आँचल
सुबक्ता
रहा अकेले में पड़े हुए,
गूँज रही कानों में
बूड़े पिता की "आखरी पुकार".
- मनाली किरकिरे




2 comments:

Archana Singh said...

katu vachan..sehar me basey har uss aam naagrik ki aapbeeti hai jo apne antarmann ki pukar ko sun ne k chakkar me,,anjaane me apne niji kareeebi logon ko thes pahuchaaa jaatey hain..shat pratishat sehmat hu aapse....
gaanv aur sehar k udhedbun me wo kahin k nhi rehte sirf ek pachtaawaa reh jata hai ki
kaash uss " aakhiri pukar" ko ansuna naa kiya hotaaa......

ameyS said...

lovely manali... very passionately written...

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